फ्रांस में पीले जैकेट आंदोलन पर दुनिया भर की प्रतिक्रिया

The Yellow vests movement in Canada, credit by Nevin Thompson, with his courtesy

कनाडा का पीला जैकेट आंदोलन. तस्वीर: नेविन थॉम्पसन (अनुमति से प्रयोग में लायी गयी है)

यह आलेख ग्लोबल वॉइसेस से जुड़े लेखकों एवं अनुवादकों के योगदान से प्रकाशित हुआ है. आभार- विशाल मान्वे, सुज़न लें, ओमो यूबा, फिलिप नोबेल, पेर्निल बेरेंटस्टें, जॉर्जिया पोपलवेल, नेविन थॉम्पसन, जुक कैरोलिना ब्रंसिया एवं एलेना दोंत्सोवा.

अक्टूबर 2018, में शुरू हुआ फ्रांस का पीला जैकेट आंदोलन किसी भी सूरत में जल्दी थमता हुआ नहीं दिख रहा है. फ्रांस सरकार द्वारा इंधन की कीमत में बढ़ोत्तरी ने इस आंदोलन के लिए चिंगारी का काम किया था पर समय के साथ नस्लीय भावनाओं की आंच पर असमानता तथा वैश्वीकरण के मुद्दे उफन रहे हैं. 

पीले जैकेट आंदोलन के दो भिन्न नजरिये पर प्रकाशित एक साक्षात्कार के कमेंट सेक्शन में ग्लोबल वॉइसेस के एक पाठक ने इस आंदोलन पर दुनिया के विभिन्न हिस्सों की राय जाननी चाही थी. इसी क्रम में ग्लोबल वॉइसेस के लेखकों ने इंडिया, नाइजीरिया, रूस, सर्बिआ, हैती, डेनमार्क, कनाडा तथा इंडोनेशिया से अपनी प्रतिक्रिया भेजी है. यह प्रतिक्रिया विस्तृत रिपोर्ट पेश करने का दावा नहीं करती है. इसका लक्ष्य इस आंदोलन के बारे में दुनिया के विभिन्न हिस्सों से प्राप्त राय रखना है. चूकि इस आंदोलन का स्वरुप जटिल है तो हम दुनिया के विभिन्न हिस्सों से मिल रहे नजरिये को रखना चाहते हैं.

भारत

भारतीय अखबार, द हिंदू, के लिए लिखते हुए सेंटर फॉर द स्टडी ऑफ़ मॉडर्न एंड कंटेम्पररी हिस्ट्री की निदेशक एमिल चबल ने फ़्रांसीसी सरकार और जनता के संबंधों की समीक्षा की है, जिस से इस आंदोलन को समझने में सहूलियत होती है.

Despite their ire, the gilets jaunes also demand redress from the very same state they abhor. They want the French government to lower fuel taxes, reinstate rural post offices, increase their ‘purchasing power’, cut property taxes, and hire more doctors for rural clinics. They firmly believe that the state can and should fix their problems. The fact that many of the issues at the heart of the protests relate to deep structural imbalances in the French economy makes no difference. The state is held as sole responsible and sole guarantor.

सरकार के प्रति अपने रोष के बावजूद पीले जैकेट आंदोलनकारी, उसी सरकार से समाधान की मांग कर रहे हैं. फ्रांसीसी सरकार से उनकी मांग, इंधन कर को कम करना, ग्रामीण डाकघरों की पुनर्स्थापना, अपनी ‘क्रय शक्ति’ में बेहतरी, संपत्ति कर में कमी तथा ग्रामीण अस्पतालों में डाक्टरों की संख्या बढ़ाने की है. उनका विश्वास है कि सरकार इसे करने में सक्षम है और उसे ये करना ही चाहिए. इस आंदोलन के मूल में ऐसे कई मुद्दे हैं जो फ़्रांसीसी अर्थव्यवस्था में संरचनात्मक असंतुलन की देन हैं, लेकिन इस से उन्हें कोई फर्क नहीं पड़ता है. उनके लिए सरकार ही पूरी तरह जिम्मेदार है और इसीलिए यह जवाबदेही भी उसी की बनती है.

पेरिस स्थित पत्रकार, करीना पिसर का आलेख, जो पहले द न्यू रिपब्लिक में छपा था, उसे इंडियन स्ट्रेटेजिक ब्लॉग ने भी प्रकाशित किया है. आलेख में मुख्यधारा की मीडिया में आये रिपोर्टों के आधार पर आंदोलन के तथाकथित दक्षिणपंथी रुझान की आलोचना की गयी है. हालांकि इंडियन डिफेन्स रिव्यु की राय से यह आलेख सहमती जताता है, जहाँ इस आंदोलन को ‘नेतृत्व-विहीन, समस्तरिय, संरचना-विहीन तथा दिशाहीन’ माना गया है. अपने आलेख का अंत करीना पिसर इस उम्मीद से करती हैं कि शायद यह आंदोलन पूंजीवादी संरचना के खिलाफ अपनी मौजूदगी दर्ज करा सके.

People are always searching for ways to explain why they suffer,” [Édouard Louis, a prolific and internationally known young French author] told me. “Do they suffer because of migrants, because of minorities? Or do they suffer because of capitalism, because of the violence of our governments, because of the violence of Macron?” For some of the banlieue activists, at least, these Yellow Vests protests offer hope that, finally, right-leaning rural voters will decide that it’s the latter.

अंतर्राष्ट्रीय ख्याति प्राप्त, एक युवा जहीन फ्रांसीसी लेखक, एडवर्ड लुइस ने मुझसे कहा, ‘लोग हमेशा अपनी व्यथा का कारण खोजने की कोशिश में रहते हैं’. ‘क्या वह प्रवासियों या अल्पसंख्यकों की वजह से मुश्किल में हैं? या फिर उनकी समस्या की वजह पूंजीवाद, सरकारी हिंसा तथा मैक्रॉन की क्रूरता है? बन्लिउ के कुछ कार्यकर्ताओं को इस आंदोलन से यह उम्मीद जगी है कि अब दक्षिणपंथी मतदाताओं को भी समझ आएगा कि असल कारण बाद वाला ही है.’

संयुक्त राष्ट्र विश्वविद्यालय की प्रोफेसर, डा. श्यामा वी. रमानी एक अजीब तुलनात्मक नजरिया अपनाती हैं. वह इस आंदोलन की तुलना भारत में आये उस गाजा चक्रवात से करती हैं, जिसमें 11 नवम्बर को 45 लोगों की मौत हो गयी थी. उनके अनुसार दोनों ही घटनाएं चौंकाने वाली हैं, जिनके लिए कुशल संरचनात्मक तरीका निकालना होगा.

हैती

अन्य प्रदर्शनों के साथ-साथ योवेनेल मोइसे की सरकार के खिलाफ हैती में जुलाई, 2018 में इंधन की दाम में वृद्धि के खिलाफ प्रदर्शन किया गया. चिली स्थित मिंटप्रेस पत्रकार, व्हिटनी वेब्ब, जिन्हें 2019 में निष्पक्ष पत्रकारिता के लिए सेरेना शिम सम्मान दिया गया, कहती हैं कि हैती में नए सिरे से प्रतिरोध और प्रदर्शन शुरू हो गया है. इसके लिए वह ‘पूंजीवादी राजशाही’ द्वारा अपने लोगों पर किये जा रहे ‘अजूबा नवउदारवादी प्रयोग’ को जिम्मेदार मानती हैं. उन्होंने अपने आलेख में फ्रांस और हैती में चल रहे आंदोलनों में कई सामाजिक तथा राजनैतिक समानता का जिक्र किया है. दोनों ही देशों के इतिहास में गुलामी तथा शोषण के खिलाफ बेमिसाल क्रांतिकारी आंदोलन हुए हैं. हैती के इन प्रदर्शनों को फ्रांस के पीले जैकेट आंदोलन के साथ जोड़ते हुए वह अपना पक्ष रखती हैं:
As both Haiti and France have become the new epicenters of popular unrest against predatory elites, much as they were two centuries ago, it is time to see both of these current movements as part of the same struggle for basic human dignity in an era of neocolonialism, imperialism and global oligarchy.

दो दशक पूर्व की तरह आज जब हैती और फ्रांस, दोनों देशों में शोषक वर्ग के खिलाफ मुखर प्रदर्शन हो रहा है तो हमें इन आंदोलनों को नवउदारवाद, साम्राज्यवाद तथा वैश्विक राजशाही के इस दौर में एक मौलिक मानवीय सम्मान के लिए संघर्ष के रूप में देखना चाहिए.

सर्बिआ 

दिसंबर, 2018 में बेलग्रेड, सर्बिआ की सड़कों पर घुमते हुए पेर्निल बेरेंत्सें (ग्लोबल वॉइसेस की एक अभिदाता) की नजरें इस भित्ति चित्र पर पड़ीं.
Yellow vest in Belgrade, Serbia, December 2018. Picture made by Pernille Bærendtsen, with her courtesy

दिसंबर, 2018 में बेलग्रेड, सर्बिआ, की दीवार पर मौजूद पीले जैकेट आंदोलन का एक भित्ति चित्र. चित्र, साभार- पेर्निले बेरेंत्सें

डेनमार्क 

पेर्निले बेरेंत्सें डेनमार्क की निवासी हैं, जहाँ पीले जैकेट आंदोलन को लेकर बड़े पैमाने पर बौद्धिक एवं राजनैतिक गहमागहमी चालू है. इस आंदोलन के संदर्भ में कुछ विशेषज्ञों का साक्षात्कार लिया गया है, जहाँ वह डेनमार्क में इसी किस्म के आंदोलन के अंकुरण पर अपनी राय रखते हैं. 

नाइजीरिया 

One thing the protests in France and Nigeria had in common was the lack of a clear leadership. Both started off as social media angst that spewed onto the streets. In Nigeria, labour leaders saw an opening in the headless mass of angry Nigerians, and entered negotiations with the government on behalf of everyone else. They reached an agreement in the night, in the dark, and by morning when they called off the protests, it wasn’t clear what exactly they had agreed to. The feeling of being sold out lingered with the protesters who trudged home to retire their placards and bury the dead. In France, they went on longer.

फ्रांस और नाइजीरिया के आंदोलनों में किसी नेतृत्व का ना होना एक समानता है. दोनों की शुरुआत सोशल मीडिया पर प्रकट रोष से हुई जो बाद में सड़क की लड़ाई में तब्दील हो गयी. नाइजीरिया के आंदोलन में वहां के नेताओं को इस उग्र भीड़ में एक उम्मीद नजर आई और उन्होंने उनके बिनाह पर सरकार के साथ बातचीत शुरू की. रातोंरात उन्होंने सरकार के साथ समझौता कर लिया और अगली सुबह उन्होंने आंदोलन खत्म करने की घोषणा कर दी. बस किसी को यह नहीं मालूम चला कि आखिर समझौता किन मांगों पर हुआ है. थके, उदास लोगों को यह अहसास हो गया कि उनका सौदा किया जा चुका है तो उन्होंने बोझिल क़दमों से घर वापसी की और मृतकों का अंतिम संस्कार किया. फ्रांस में यह आंदोलन लंबा खींच गया है.

उन्होंने दोनों देशों में इस दौरान हुई हिंसा का भी आकलन किया है.

I remember thinking how peaceful [the protesters] were, other than the nuisance of impeding movement, how they chanted slogans at passing cars. A lady on a roller skate zipped alongside cars, her yellow vest a blur, smiling but chanting anti-Macron slogans.

“Don’t be scared,” my friend said. “They are mostly peaceful.”

“I am from Nigeria,” I said. “We don’t protest like this.”

मेरी याद में प्रदर्शनकारी काफी शांत थे. गुजरती गाड़ियों को देख कर नारेबाजी के अलावा उनकी कोई और हरकत मुझे नहीं याद है. एक ;लड़की स्केट पर फिसलती हुई गाड़ियों के साथ चल रही थी. उसका पीला जैकेट धुंधला दिख रहा था और वह मैक्रॉ सरकार के खिलाफ नारेबाजी कर रही थी.
मेरी दोस्त ने कहा कि ‘डरने की बात नहीं है, आम तौर पर ये लोग शांतिप्रिय हैं’.
मैंने कहा कि, ‘मैं नाइजीरिया से हूँ, वहां हम इस तरह प्रदर्शन नहीं करते हैं’.

कनाडा

कनाडा के एक फेसबुक ग्रुप में 110,000 से ज्यादा लोग हैं. फिलहाल 150 गाड़ियों का एक काफिला अल्बर्टा से ओटावा की ओर जा रहा है, जहाँ ये लोग पाइपलाइन के समर्थन में तथा कुछ मीडिया समूहों के अनुसार, श्वेत-गौरव के पक्ष में प्रदर्शन करने वाले हैं. टोरंटो के प्रकाशक, जेस्सी ब्राउन, आंदोलन के प्रवासी-विरोधी मानसिकता पर बल देते हैं. वह ट्विटर पर सीबीसी (कनाडा पब्लिक ब्रॉडकास्टर) की एक रिपोर्ट को खारिज करते हैं:

सीबीसी द्वारा पीले जैकेट आंदोलन पर प्रकाशित रिपोर्ट ना केवल देर से आई है बल्कि यह गलत भी है. इसके अनुसार आंदोलन का ध्येय नौकरियाँ हैं और ‘साथ में’ प्रवासियों की मौजूदगी भी एक विषय है. सच ये है कि कनाडा का यह पीला जैकेट आंदोलन पूरी तरह प्रवासियों के खिलाफ भावनाओं (हत्या की धमकी तक) से भरा हुआ है.

आंदोलन के इस पक्ष को डेविड क्रोस्बी ने फेसबुक पर बने कनाडा पीला आंदोलन ग्रुप में की गयी टिप्पणियों के आधार पर अपने एक आलेख में रखा है. उन्होंने माना है कि आंदोलन का यही रुख इसे फ्रांस के आंदोलन से भिन्न बना देता है.

While the Canadian Yellow Vests have some grievances in common with their French forebears, chiefly concerning economic disparity and unemployment, their message has been decidedly more hateful from the beginning.

यह सही है कि आर्थिक असामनता तथा बेरोजगारी के मुद्दे पर कनाडा का पीला जैकेट आंदोलन फ्रांसीसी आंदोलन की तरह है पर यहाँ की अभिव्यक्ति शुरू से ही काफी द्वेषपूर्ण रही है.

सीटीवी से बात करते हुए कनाडा में फ्रांसीसी राजदूत, इसाबेल हुडों दोनों आंदोलनों के चेहरे में इस फर्क पर बल देती हैं:

Isabelle Hudon says the movement in Canada appears to have been appropriated by far-right extremists espousing racist, anti-immigrant views and even indulging in death threats against Prime Minister Justin Trudeau. […] While violent individuals have been involved in the French protests, some of which have devolved into riots, Hudon says she's never seen the protests there linked to race or immigration.

इसाबेल हुडों कहती हैं कि कनाडा में इस आंदोलन पर उग्र दक्षिणपंथियों का कब्ज़ा दिखता है जो नस्लवादी तथा प्रवासी-विरोधी नजरिया रखते हैं. यहाँ तक कि प्रधानमंत्री जस्टिन त्रुड़े के खिलाफ हत्या की धमकी भी जारी करते हैं. हुडों मानती हैं कि फ्रांस में भी कुछ उग्र श्वेत इस आंदोलन का हिस्सा रहें हैं जिस से दंगा भड़का है पर वहां कभी भी उन्हें नस्ली या प्रवासी आधार पर कोई टिप्पणी सुनने को नहीं मिली है.

आखिर में की गयी उनकी इस टिप्पणी को सूक्ष्मता से देखना होगा क्योंकि हाल ही में फ्रांस में कुछ पीले जैकेट आंदोलनकारियों ने यहूदी-विरोधी टिप्पणी की है. फ्रांस की तरह ही यहाँ भी सोशल नेटवर्क से आंदोलन को खाद-पानी मिलता रहा है. ग्लोबल न्यूज़ पर साइमन लिटिल ने लिखा है कि कम्लूप्स में जस्टिन त्रुड़े के दौरे के बाद बीसी रेडियो के मेजबान ब्रेट मिनीर को ट्विटर पर अपनी प्रतिक्रिया के लिए ;धमकी और गालियों भरे संदेश’ झेलने पड़े. उन्होंने कनाडा के पीले जैकेट आंदोलन के ‘नस्लभेदी और षड्यंत्रकारी बातों’ के पहलू पर अपनी राय रखी थी.

प्रधानमंत्री के दौरे के बाद जब मेरे सामने ऐसे नस्लभेदी, मूर्खता की हद तक षड्यंत्रकारी बातों में विश्वास रखने वाले तथा सकारात्मक विमर्श के प्रति पूरी तरह हेय दृष्टि रखने वाले और अक्षम लोग की खबर आई तो ऐसे धूर्तों के बीच खुद को पा कर मेरी एक ही कामना थी कि जल्द से जल्द इस दुनिया से रवाना हो लूं.

यूबीसी के समाजशास्त्री, डेविड टिंडल से सोशल मीडिया और ऐसे सामजिक आंदोलन तथा इंटरनेट पर मिल रही गालियों और धमकियों पर बात करते हुए साइमन लिटिल ने लिखा है:

The online environment has also allowed people with extreme views who might once have been isolated to come together and feed off each other’s energy. […] He said he’s seen evidence of increasing polarization in Canada, something he attributes to the breakdown of rules about what’s acceptable south of the border in the Trump era.

इंटरनेट की वजह से ऐसे लोगों को सहूलियत हुई है जो अपने आक्रामक नजरिये की वजह से पहले अलग-थलग पद जाते थे. अब एक समूह बना कर वो एक-दूसरे का उत्साह बढाते हैं. उनके हिसाब से जिस तरह सीमा पार ट्रम्प-शासन में ध्रुवीकरण बढ़ा है, उसी तरह का माहौल यहाँ भी देखा जा सकता है. ऐसी स्थिति में नियमों की कोई अहमियत नहीं रह जाती है.

इंडोनेशिया 
इंटरनेट पर प्रकाशित अपने एक लेख में एडवर्ड एस. केनेडी ने फ़्रांसीसी जनता के प्रदर्शन और प्रतिरोध के प्रति सहज स्वीकृति वाले स्वभाव पर अपना पक्ष रखा है. उन्होंने लिखा है कि फ़्रांसीसी जनता इसे अपने दिनचर्या का हिस्सा समझती है. इसका शीर्षक घोषणा करता है, ‘फ्रांस की गलियों में प्रदर्शन एक परंपरा, एक खेल तथा एक शौक है’. मई, 1968 के आंदोलन का हवाला देते हुए उन्होंने लिखा है, ‘आज के इस पीले जैकेट आंदोलन को देख कर ऐसा लगता है मानो फ्रांस अपने रौद्र और खूनी इतिहास में झाँक रहा है. मई, 1968 का हवाला देते हुए दीवार पर एक चित्र बनी है, जिस पर लिखा है: “मैं जितना ज्यादा क्रांति के लिए जोर लगाता हूँ, उसी वेग से मुझमे प्रेम-भाव का संचार होने लगता है”‘.
सुराबाया स्थित ऐर्लान्ग्गा विश्वविद्यालय के राजनीतिशास्त्र और समाजशास्त्र विभाग के प्राध्यापक, फह्रुल मुज़क्की, ने तीन देशों के आंदोलनों की तुलना की है: फ्रांस (पीला जैकेट), इंडोनेशिया (212) तथा मलेशिया (812). हमारे ग्लोबल वॉइसेस की लेखक जूक कैरोलिना के अनुसार, ‘वह जनवादी आंदोलनों में अभिजात वर्ग के नियंत्रण के खतरे पर बल देते हैं’. वह आगे लिखते हैं, ‘प्रतिनिधि-लोकतंत्र की आलोचना ने इस आंदोलन को लोकतंत्र-विरोधी बना दिया है जो लोकतंत्र से कहीं ज्यादा खतरनाक है’.

रूस 

रूस निवासी, ग्लोबल वॉइसेस की लेखिका, एलेना दोंत्सोवा ने फ्रांस के पीले जैकेट आंदोलन पर अपनी टिप्पणी रखी है:

Federal media displayed a disaster, a nearly emergency situation in France. The President of Russia, in a meeting of the local Human Rights Council, commented, regarding the freedom of meetings and demonstrations in Russia, that: “We don't want the same events as in Paris to happen here”

Independent media, however, described the situation with more nuances, as in the Novaya Gazeta.

More up-to-date reports say that most of the French people want the protests to end.
Media says that the French Yellow vests movement still had a lot of supporters but that the number of respondents, who considered themselves as members of the movement, has declined.

रूस की मुख्यधारा मीडिया ने फ्रांस के हालातों के आपातकाल सरीखा बताते हुए ताबहिनुमा दृश्य दिखाए. स्थानीय मानवाधिकार समिति में शिरकत करते हुए राष्ट्रपति पुतिन ने रूस में समूहों और प्रदर्शनों की स्वतंत्रता पर टिप्पणी करते हुए कहा: ‘हम पेरिस जैसी स्थिति यहाँ नहीं चाहते हैं’.
नोवाया गजेट जैसे स्वतंत्र मीडिया ने, हालाकि स्थिति की सूक्ष्म पड़ताल पेश की है.
हालिया रिपोर्टों में कहा गया है कि फ्रांस की बहुमत जनता इन प्रदर्शनों को अब खत्म करना चाहती है. मीडिया का मानना है कि अभी भी पीले जैकेट आंदोलन के समर्थकों की संख्या प्रचुर है पर खुद को आंदोलन का सदस्य बताने वाली जनता में कमी आई है.

दुनिया भर में पीले जैकेट आंदोलन पर बहुपक्षीय राय

नीचे दिया गया विडियो लिंक फ्रेंच भाषा में ब्रुत द्वारा प्रस्तुत किया गया है. इस में आंदोलन पर दुनिया के विभिन्न हिस्सों की आवाजें शामिल हैं:

कुल मिलाकर देखा जाए तो दुनिया भर में इन प्रदर्शनकारियों के प्रति असामानता के खिलाफ आवाज़ उठाने के लिए समर्थन जाहिर किया गया है और समाज को बांटने वाले तत्वों पर चिंता जाहिर की गयी है. आंदोलन शुरू हुए तीन महीने हो चुके हैं. दुनिया अब भी इस बारे में बात कर रही है और हम सुन रहे हैं क्योंकि वैश्विक स्तर पर इस विमर्श को बनाये रखने की आज जरूरत है.

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